इतिहास का परिहास हमारी महाभूल Published on: 29 Oct, 2021

TARA PATKAR

Publishing, Literature, Editing
हम अपने इतिहास को भुलाकर कितनी बड़ी गलती कर रहे हैं, इसका हमको एहसास नहीं है। हम नहीं जानते कि यही गलती हमारी सारी परेशानियों की असली वजह है। हिन्दुस्तान के इतिहास के साथ तो इतना अधिक खिलवाड़ हुआ है कि दुनिया में शायद ही कहीं और हुआ हो। जो खलनायक थे, वे हीरो बना दिए गए और जो असली हीरो थे, वे खलनायक हो गए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को ही ले लीजिए। गांधी जी की कितनी संतानें थी, ये कितने लोग जानते हैं। हरिलाल, मणिलाल, रामदास व देवदास कौन थे, कहां के थे। उनके पिता का नाम क्या था, कितने लोग जानते हैं। ये है हमारे देश के इतिहास की हकीकत। आजादी के बाद असली गांधी नकली हो गए और नकली गांधी असली हो गए। यही हाल वीर सावरकर का हुआ। आजादी की लड़ाई का ये महान योद्धा गुमनामी की मौत मर गया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बारे में तरह तरह की खबरें तीन दशक पहले तक आती रही कि वे जिन्दा हैं। साधु बन गए हैं, वगैरा-वगैरा। हमने कभी उनकी कदर नहीं की। इसी का परिणाम आज हम भोग रहे हैं। जब इतने बड़े महापुरुषों का इतिहास गड्डमड्ड कर दिया गया तो बाकी उन क्रांतिवीरों को कौन पूछता है जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। सन 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए थे लेकिन इतिहास में उनको कहीं जगह नहीं मिली। झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई को भी दुनिया न जान पाती अगर साहित्यकार वृंदावन लाल वर्मा ने अपनी पारखी लेखनी से उनके इतिहास को उजागर न किया होता। कितने लोग जानते हैं कि लक्ष्मी बाई की शहादत के बाद उनके दत्तक पुत्र दामोदर राव व वफादार सैनिकों को जंगलों में रहना पड़ा। घास की रोटियां खानी पड़ी। भीख मांगना पड़ी। यही हाल क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की मां का हुआ। उनकी शहादत के बाद मां को दर दर की ठोकरें खानी पड़ी। हम सभी क्रांतिकारियों को भूल गए। उन सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों तक को भूल गए जो अभी तक जिन्दा रहे। जब हम आजादी की 50वीं सालगिरह मना रहे थे, तब केन्द्र सरकार ने एक अच्छी शुरूआत करते हुए जिले के हर ब्लाक दफ्तर में उस ब्लाक के सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम एक साथ एक पत्थर पर अंकित करके स्मारक बनवाए थे। हमारे नगर महोबा के ब्लाक दफ्तर में भी क्षेत्र के 44 स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का एक स्मारक बनवाया गया जिसमें उनका नाम, पिता का नाम व गांव का नाम दर्ज है। ज्यादातर सेनानियों के नाम के साथ उनकी जाति न लिखने की वजह से अब उनके परिवार के लोगों को खोजना दुष्कर कार्य हो गया है। हमने योजना बनाई थी कि एक स्थान पर सभी की मूर्तियां लगाकर उनका परिचय लिखा जाए ताकि नयी पीढ़ी उन महापुरुषों के बारे में जान सके लेकिन ज्यादातर क्रांतिवीरों के बारे में अब कुछ भी पता नहीं चल पा रहा है। जानकर पुराने लोग बचे नहीं। कहीं कोई उनका रिकार्ड नहीं। ऐसे हालात में समाज के सामने क्या संदेश जाता है। यही न कि हम, हमारा सिस्टम इतने मतलबी, स्वार्थी और खुदगर्ज हो गए हैं कि हमें उन महापुरूषों से कोई मतलब नहीं जिन्होंने हमारी खातिर अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। ऐसा समाज दुखों से मुक्त कैसे हो सकता है

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